हो गया संपन्न सम्मेलन
लोग बनकर रह गए दोलन
और परिभाषित न फिर से हो सकीं
व्याख्याएँ प्रेम कीं ..!!
निकटतम संबंध बोझीले हुए
जन्म के अनुबंध फ़िर ढीले हुए
सोच भर से शुष्क दृग गीले हुए !
और आच्छादित न फ़िर से हो सकीं
भावनाएँ प्रेम कीं ...!!
हो गए पूरे सभी भाषण
बस दिखावे को रहा हर प्रण
जानकी को छल गया रावण !
और वरदानित न फ़िर से हो सकीं
साधनाएँ प्रेम कीं ...!!
संकलन अपनों परायों का
ज़िंदगी है ग्रंथ साँसों का
संधि-विग्रह औ'समासों का !
और संपादित न फ़िर से हो सकीं
यातनाएँ प्रेम कीं ..!!
भाव को साकार कर पाए नहीं
बेड़ियाँ,प्रतिबंध,गल पाए नहीं
रीति का प्रतिकार कर पाए नहीं !
और स्वरसाधित न फ़िर से हो सकीं
शुभऋचाएँ प्रेम कीं ...!!
-- भावना