गीत नवगीत कविता डायरी

09 August, 2013

पावस के दिन

पावस के सब दिन कल-कल कर बीत गए //
पल-पल उँगली के पोरों पर रीत  गए /


साँझ हुई फ़िर जला लिया ,दीपक उर में ,
ड्योढ़ी पर बैठी  लगे मन अब घर में /
साँसों की लौ  रह-रह ,सहसा तेज़ हुई ,
आँखों की चौखट पावस की सेज हुई /
ताकूँ पंथ  जाने किस पथ मीत गए //
पावस के सब दिन कल-कल कर बीत गए //


यादों की बौछारों पर ,मन  रीझ गया ,
काजल वाले जल से आँचल भीज गया /
प्राणों पर निष्ठुर बिजली  डोरे डाले ,
विचलित करते मन बरबस बादल काले /
मैं हारी ये सारे विषधर जीत  गए //
पावस के सब दिन कल-कल कर बीत गए //



पथराये मन पर छाई दुख की काई ,
धीरज के पाँवों में फिर फिसलन  आई /
पलकों की चादर पर दृग आँसू टाँकें ,
उर की दीवारें मिलकर सिसकन बाँटें /
स्वर लहरी में तड़पन भर-भर गीत गए /
पावस के सब दिन कल-कल कर बीत गए //


08 August, 2013

Nawya - डायरी का एक पन्ना - 9

ऐसे लगता है जैसे इस घर का हर कोना ,हर दीवार ,घर की चौखट ..घर की छत ......सब हैं कठपुतलियाँ ...पापा के हाथों की कठपुतलियाँ .......पापा कभी प्यार से भी तो खींच सकते हैं न आप डोर ...हम सभी को है प्रतीक्षा ...पिंजरे के खुल जाने की ....अय आकाश ...तुम कितनी दूर हो मुझसे,हवा तुम पकड़ में क्यों नहीं आती ..

Nawya - डायरी का एक पन्ना - 9