गीत नवगीत कविता डायरी

14 January, 2015

भीख में प्रेम

क्यूँ मांगते हो भीख जैसी प्रेम की अब सोचा नहीं ..इतने दिनों से कभी गुज़रे होंगे दिवस कैसे और ये ख़ामोश चीखतीं विलाप करती हुईं रातें ... कभी पलट कर देखा कैसे हो गई विलीन मेरे अधरों की मुस्कुराती रेखा .. बहुत आगे पग बढ़ा कर पीछे लौटना मेरा बार-बार पुरानी बातों का औटना . तुम्हारा तथाकथित प्रेम पीछे छोड़ आई हूँ मेरा बिखरना गए दिनों की बात है अब मेरा हौसला मेरे साथ है तंज़ सारे मरोड़कर रंज़ सारे छोड़कर पंथ अपना चुन लिया मैंने ख़ुद को इन अक्षरों में बुन लिया मैंने ...!!
~भावना

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