चौखट पर उकेरे
कितने ही स्वास्तिक,
मुख्यद्वार पर छोड़े
हाथों के थापे ,
वो मंगल गान
जिनमें समाहित था कल्याण ।
मैं ही कर्त्ता थी
मैं ही शुभ थी
मुखमंडल था आभयमान ।
पर देहरी लाँघते ही
बदल गए अर्थ ..
वो स्वस्तिवाचन
मेरे स्वर को कर गया मौन
शीशे से घुलते हैं भाव
पोषित होता है संताप ।
यज्ञ की आहुतियां
जला गईं मेरा लेख ,
शांति का स्वप्न
बढ़ा गया अश्रुओं का ताप ।
है मुझे खेद
ओ मेरे जीवन वेद
नहीं फला मुझे तेरा
श्रीमय उच्चारण /
सप्तपदों के बाद
मुझ मंगलकारी को निर्विवाद
आपसे चाहिए होता है श्रीमान
मेरे अस्तित्व का प्रमाण ।।
@-भावना
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteआपका हार्दिक आभार सु-मन (Suman Kapoor) जी
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