गीत नवगीत कविता डायरी

25 July, 2013

एक नदी के हम दो धारे ...

मन पंछी जा रे उड़ जा रे 
अब क्या बाकी है !
सब कुछ छूट गया उस पारे 
अब क्या बाकी है !!

अपनी चारदिवारी प्रिय,
बाहर निकल सकी कब मैं !
और लांघकर कर ड्योढ़ी साथी 
मुझ तक तुम कब आये !!

कितनी दूरी बीच हमारे 
अब क्या बाकी है !
एक नदी के हम दो धारे 
अब क्या बाक़ी है !!

साँसें रुकतीं प्राण न जाते ,
क्या जीवन है,क्षण-क्षण मरता !
झूठ नहीं कह पाता मन ये 
लेकिन सच से भी डरता !
तपते सुख से दर्द सुखारे 
अब क्या बाक़ी है !
आँखों से बहते जल-धारे 
अब क्या बाक़ी है !!

है नितांत निर्जन वन सा मन 
सन्नाटे को चीरे  क्रंदन !
नहीं सुनाई देता जो वह 
प्रेम कंटीला सुखमय तड़पन !

नीरवता से शोर भी हारे 
अब क्या बाक़ी है !
स्वप्न हुए बेघर बंजारे 
अब क्या बाक़ी है !!

      -भावना 

No comments:

Post a Comment